किसान विरोधी कानून: संवैधानिक प्रावधान


LAW & ECONOMICS, UNCATEGORIZED, हिंदी / Saturday, November 23rd, 2019

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अमर हबीब की किताब पर आधारित किसान विरोधी कानूनों पर लेखों की हमारी श्रृंखला का यह भाग 2 है। पुस्तक यहां से डाउनलोड की जा सकती है (अंग्रेजी और मराठी संस्करण के लिए भी देखें)।

संविधान का “परिशिष्ट ९” यह क्‍या मामला है?

१९४७ के पूर्व भारत में अंतरिम सरकार थी। स्वातंत्रता के बाद कुछ समय तक वही संसद बनी रही। १९५२ में पहला सार्वत्रिक चुनाव हुआ। अंतरिम सरकार के द्वारा संविधान समिति का गठन किया गया था। अंतरिम सरकार के सभी सांसद संविधान सभा के सदस्य थे। प्रारुप समिति के अध्यक्ष डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर थे। संविधान सभा में विस्तार से चर्चाएँ हुई। भारत का संविधान २६ जनवरी १९५० से लागू हुआ। संविधान में कुल आठ परिशिष्ट (अनुसूची) थे। परिशिष्ट याने, ऐसे विवरण जिन का उल्लेख मूल संविधान के अनुच्छेद में हुआ हो लेकिन उसका खुलासा वहाँ नहीं किया है, उस खुलासे के लिए परिशिष्ट जोडे गये। उदाहरणार्थ, संविधान के अनुच्छेद १ की पहली पंक्ति में लिखा है कि, ‘संघराज्य का नाम ब राज्यक्षेत्र – इंडिया अर्थात भारत, राज्यों का संघ होगा’। दूसरी पंक्ति में (राज्य तथा उनके राज्यक्षेत्र, पहिली अनुसूची में जिस प्रकार उल्लेख है वैसे होंगे।) याने अनुच्छेद १ का विवरण परिशिष्ट १ में दिया है।

मूल संविधान में आठ परिशिष्ट थे। इन आठों परिशिष्टों का संविधान में पहले उल्लेख हुआ है। लेकिन परिशिष्ट ९ का उल्लेख मूल संविधान में कही भी नहीं था। ९ वां परिशिष्ट जोडने के लिए १८ जून १९५१ को पहिला संविधान संशोधन किया गया। इस परिशिष्ट में जिन कानूनों का समावेश होगा वे कानून न्यायालय के अधिकार के बाहर होंगे, इस प्रकार परिशिष्ट का स्वरुप है। तारीखों से ध्यान में आता है कि संविधान लागू होकर मात्र देढ ही वर्ष हुआ था, तब अस्थायी सरकार थी। मतलब सार्वजनिक चुनाव द्वारा चुनी हुई सरकार स्थापन होने के केवल पांच या छ महिने पूर्व ९ वां परिशिष्ट हमारे संविधान में जोड दिया गया। अस्थायी सरकार को नीति से संबंधित इतना बडा निर्णय लेना चाहिए था क्‍या? इतनी जल्दी करने की क्‍या आवश्यकता थी? क्‍या आनेवाले चुनाव के लिये वह जरूरी था?

प्रजातांत्रिक देश में न्याय के लिए न्यायालय में जाने का अधिकार मूलभूत अधिकार माना जाता है। लेकिन भारत में आजादी का अभी सबेरा ही हो रहा था कि किसानों का न्यायालय में न्याय माँगने का अधिकार खारिज कर टिया गया। सत्तर वर्ष होने आये लेकिन अब तक सूरज निकला ही नहीं।

आज तक (२०१८) परिशिष्ट ९ में २८४ कानून हैं। उनमें से २५० से ज्यादा कानून किसानों से संबंधित है। शेष कानूनों का भी खेती से अप्रत्यक्ष संबंध है। २८४ में से २५० कानून इस परिशिष्ट में गलती से जोडे गये, ऐसा तो नही कहा जा सकता। किसानों को न्यायालयों से दूर रखने का उद्देश्य स्पष्ट दिखाई देता है।

हाल में सर्वोच्च न्यायालयनें कहा है कि २४ अप्रैल १९७३ ( केशवानंद भारती केस) के बाद परिशिष्ट ९ में जोडे गये कानून न्यायालय की कक्षा में आ सकते है। लेकिन सिलिंग तथा अन्य महत्वपूर्ण कानून उसके पूर्व के हैं।

किसानों पर अन्याय करने की शुरुवात पहिले संविधान संशोधन से हुई। उसके दुष्परिणाम स्वरूप ही कृषिक्षेत्र अर्थात भारत, इंडिया का उपनिवेश बना। किसानों पर आत्महत्या करने की नौबत आयी।

कौन कौनसे संविधान संशोधन किसान विरोधी हैं?

भारत का मूल संविधान व्यक्ति स्वातंत्रता पर आधारित है। उसमें अन्य व्यावसायिकों को जैसा आर्थिक स्वातंत्र्य दिया गया था, बैसा ही स्वातंत्र्य किसानों को भी दिया गया था। लेकिन संविधान के लागू होने पर किसानों का स्वातंत्र्य कम करने के लिए संविधान में अनेक संशोधन किये गये। २०१५ के अंत तक मूल संविधान में कुल मिलाकर ९४ संशोधन किये गये। उनमें से १ ला, ३ रा, ४ था, २४ वां, २५ वां, ४२ वां और ४४ वां यह सात संविधान संशोधन किसानों के लिए अधिक हानीकारक सिद्ध हुए।

१ ला संविधान संशोधन- १८ जून १९५१ को अनुच्छेद ३१ में पहला संशोधन कर, मूल संविधान में जिसका कोई उल्लेख नहीं है, बह परिशिष्ट ९ जोडा गया। इस परिशिष्ट में समाविष्ट किये गये कानूनों के विरुद्ध न्यायालय में जाने से रोकने का प्रावधान किया गया है। आवश्यक वस्तु अधिनियम जैसे अनेक कानून समय समय पर इस परिशिष्ट में जोडे गये। न्यायालय में न्याय मांगने का भारतीय किसानों का अधिकार इस संविधान संशोधन ने समाप्त कर दिया।

३ रा संविधान संशोधन- २२ फरवरी १९५५ को संविधान के परिशिष्ट ७ में ३ रा संविधान संशोधन किया गया। इस परिशिष्ट में राज्य सूची, केंद्र सूची तथा सामायिक सूची दी गयी है। संविधान के अनुसार कृषी यह विषय राज्य सरकार की अधिकार कक्षा में है। सामायिक सूची के अनुच्छेद ३३ में से पूर्व की सारी बातें खारिज कर, नया मजमून दर्ज किया गया, जिस के अनुसार खाद्य पदार्थ, ढोरों की खाद, कपास, कच्चा ज्यूट इस प्रकार के विभाग कर केंद्र सरकार के नियंत्रण की व्यवस्था की गई। इस प्रकार केंद्र सरकारने राज्य सरकार के अधिकारों में हस्तक्षेप कर कृषि उत्पादनों के बाजार पर कब्जा किया। यह संशोधन आवश्यक वस्तु अधिनियम की जननी माना जाता है। फरवरी १९५५ में संविधान संशोधन हुआ और अप्रैल १९५५ में आवश्यक वस्तु अधिनियम बना।

४ था संविधान संशोधन- २७प्रैल १९५५ को अनुच्छेद ३१ में फिरसे सुधार कर चौथा संविधान संशोधन किया गया। यह संशोधन सरकार को भूमि अधिग्रहण करने का अनिर्बंध अधिकार प्रदान करता है। इस संशोधन ने केवल जायदाद के मूलभूत अधिकार को ही कमजोर नहीं किया बल्कि अनुच्छेद १३ के अनुसार संविधान कर्ताओं ने सभी मूलभूत अधिकारों को दिये हुए संरक्षण को भी कमजोर बना दिया। इस संशोधन के बाद भूमि अधिग्रहण करने का निर्विवाद अधिकार सरकार को मिला। इसमें न्यायालयों को हस्तक्षेप करने से दूर रखा गया।

२४ वां संविधान संशोधन- ५ नवंबर १९७१ को भूमि अधिग्रहण का मार्ग निर्विघ्न एवं खुला करने के लिए अनुच्छेद १३ में संशोधन किया गया। नागरिकों के मूलभूत अधिकारों को दिया हुआ संरक्षण इस संशोधन ने सीधे समाप्त कर दिया।

अनुच्छेद १३ के अनुसार भारतीय नागरिकों को उनके मूलभूत अधिकारों का संरक्षण प्राप्त था। इस अनुच्छेद में सरकार को आगाह किया था कि सरकार मूलभूत अधिकार समाप्त करनेवाले, उनका संकोच करनेवाले कोई कानून नहीं बना सकती, और ना ही आदेश दे सकती है। २४ वे संविधान संशोधन ने नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के सुरक्षा कबच को समाप्त कर दिया।

२५ वां संविधान संशोधन- २० अप्रैल १९७२ को अनुच्छेद ३१ में नया (ग) विभाग समाविष्ट कर संविधान में दिये हुए मार्गदर्शक तत्वों को मूलभूत अधिकारों से अधिक महत्व दिया गया। ऐसा माना जाता था कि मार्गदर्शक तत्व बंधनकारक नहीं है। इस संशोधन ने उन्हें महत्व प्राप्त हुआ तथा ‘लोककल्याण’ के नामपर नागरिकों के मूलभूत स्वातंत्रय का हरण किया गया।

४२ वां संविधान संशोधन- १८ दिसंबर १९७६ को एक दिन में अलग अलग ७ अनुच्छेद तथा संविधान की उद्देशिका इनमें कुल मिलाकर ५९ संविधान संशोधन किये गये। एक दिन में इतने सारे संशोधन करने का विक्रम अन्यत्र कहीं हुआ होगा, ऐसा नहीं लगता। यह सरकार द्वारा घोषित आपातकाल का समय था। स्थूल रुप से देखना हो तो ४२ वे संविधान संशोधन का आकलन निम्नलिखित के अनुसार किया जा सकता है।

१) मूल संविधान की प्रस्तावना में जो शब्द नहीं थे, वे समाजवाद तथा धर्मनिरपेक्ष(सेक्युलर) ये शब्द जोडे गये।

२) अनुच्छेद ३१ में ३१ (सी) यह नया विभाग जोडा गया। इस संशोधन से कानून के सामने सारे समान इस तत्व को बल देनेवाला अनुच्छेद १४ तथा स्वतंत्रता का अधिकार देनेवाला अनुच्छेद १९ का संकोच किया गया।

३) जायदाद प्राप्त करना, उसका उपयोग करना, उसे बेचना या उत्तर उत्तराधिकारीयों को हस्तांतरण होना यह जायदाद के स्वातंत्रय का अधिकार देनेवाला अनुच्छेद १९ (१) (एक) पूर्ण खारिज किया गया।

४) भूमी अधिग्रहण के लिए किये गये कानूनों को खुली छूट मिले इसलिए अनुच्छेद३१ (ए) में अनुच्छेद १४ (कानून के सामने सब समान) तथा अनुच्छेद १९ (स्वातंत्रता का अधिकार) इन दोनों को प्रभावशून्य करनेवाली व्यवस्था की गई।

४४ वां सविधान संशोधन– ३१ अप्रैल १९७९ को जायदाद का मूलभूत अधिकार समाप्त करनेवाला संविधान संशोधन किया गया। इसी संशोधन के आधारपर नया अनुच्छेद ३००(अ) समाविष्ट किया गया। मूलभूत अधिकार याने स्वातंत्रता का अधिकार। ये अधिकार संविधान की आत्मा माने जाते हैं। संविधान कर्ताओं ने अनुच्छेद १३ के जरिये आगाह किया था कि सरकार इन अधिकारों में हस्तेक्षेप ना करे। प्रधानमंत्री नेहरूजी के समय ये अधिकार कमजोर किये गये। इंदिरा गांधी के काल में इन्हें मृत कर दिया गया और जनता पार्टी के काल में जायदाद के मूलभूत अधिकार को समाप्त कर ताबूत को अंतिम कील ठोकी गयी। जायदाद का अधिकार अब केवल संवैधानिक अधिकार बचा है। वह अब मूलभूत अधिकार नही रहा।

भारत का संविधान बदलना चाहिए क्‍या?

नहीं, बिल्कुल नहीं। कृषी के संदर्भ में हमारे संविधान कर्ताओं ने जिस मूल स्वरुप में संविधान दिया था उस मूल रुप में संविधान प्रस्थापित होना चाहिए। मूलभूत अधिकारों को लेकर संविधान में जो संशोधन किये गये हैं और जिनके कारण किसानों को गुलाम बना दिया गया उन्हें तुरंत खारिज करना चाहिए। भारत का मूल संविधान व्यक्ति स्वातंत्रय्पर आधारित है। वह बैसा ही प्रस्थापित होना चाहिए। मूल संविधान को बदलने की आवश्यकता नही है।

यह लेख श्रृंखला जारी रहेगी। अमर हबीब से habib.amar@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है

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