किसान विरोधी कानून किसान आत्महत्याओं का कारण हैं


LAW & ECONOMICS, हिंदी / Tuesday, November 19th, 2019

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अमर हबीब की किताब पर आधारित किसान विरोधी कानूनों पर लेखों की हमारी श्रृंखला का यह भाग 1 है। पुस्तक यहां से डाउनलोड की जा सकती है (अंग्रेजी और मराठी संस्करण के लिए भी देखें)।

किसानों की आत्महत्या के प्रमुख कारण क्‍या है?

आत्महत्या कहना गलत है। यह सारे किसान, सरकारी नीतियों के बलि हैं। यह आत्महत्या नहीं है बल्कि खून हैं और उसे सीधे सरकार जिम्मेदार है। सभी दलों की सरकारें जिम्मेदार हैं। किसान विरोधी कानूनों की श्रृंखलाओं में जकडे जाने के कारण उन्होंने मृत्यु को स्वीकार किया है| इस वास्तविकता को समझने पर ही किसानों की आत्महत्याओं का मसला सुलझ सकता है।

सन १९८६ में यवतमाल जिले के चील-गव्हाण गांव के साहेबराव करपे नामक किसान ने पबनार आश्रम के निकट दत्तपूर जाकर पूरे परिवार के साथ आत्महत्या की थी। मरते समय उन्होंने एक चिठृठी लिखी थी, जिससे किसानों की समस्याओं का भीषण यथार्थ संसार के सामने आया। १९ मार्च १९८६ को हुई यह पहली दहेला देनेवाली आत्महत्या थी।

सरकारने स्वयं निर्णय नहीं किया था बल्कि न्यायालयने आदेश देने के बाद सरकारने टाटा इन्स्टिट्यूट ऑफ सोशल सायन्सेस, मुंबई इस संस्था को किसानों की आत्महत्या पर रिपोर्ट देने को कहा था। केंद्र सरकार के नेंश्नल क्राईम रेकॉर्ड ब्युरो ने किसानों की आत्महत्या को अलग से दर्ज करना शुरु किया। कुछ लोगों का यह मानना है कि, उदारीकरण तथा भूमंडलीकरण के कारण किसान आत्महत्या करने लगे हैं। लेकिन यह सरासर गलत है। क्योंकि यह नीति अपनाने के पहले भी किसान आत्महत्या कर रहे थे। इसके अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं। अंग्रेजों के जमाने में भी किसानों की आत्महत्याएँ होती थी। अंग्रेज जाने के बाद भी बारबार होती आयी हैं। यह सच है कि १९९० के बाद किसानों की आत्महत्याएँ बढी हैं। उस का कारण ठीक से समझना होगा।

वर्ष १९९० में केंद्र सरकारने उदारीकरण तथा भूमंडलीकरण की नीति का स्वीकार किया। उसे संपूर्ण देश में लागू किया। फिर भी देश के अनेक राज्यों में किसानों की आत्महत्याएँ होते हुए नहीं दिखती। तुलनात्मकरीत्या अधिक विकसित राज्यों में बडे पैमाने पर आत्महत्याएँ हो रही हैं। इसका अर्थ यह है कि, जहाँ आसपास विकास हुआ, उस विकास के तनाव का बोझ झेलने की क्षमता किसानों में नहीं आ सकी। (सच तो यह है कि आने नहीं दी गई) उस परिसर के किसान बडे पैमाने पर हताश हुए और उन्होंने आत्महत्या का मार्ग स्वीकार किया। ‘इंडिया’ में उटारीकरण आया लेकिन ‘भारत’ में आया ही नहीं। ‘भारत’ पर ‘इंडिया’ के विकास का बोझ पडता गया। वह सहन न होने के कारण किसानों को आत्महत्या करनी पडी।

अनेक लोग किसानों की आत्मह॒त्याओं के संदर्भ में ‘निमित्त’ और ‘कारण’ में गलती करते हैं। ‘निमित्त’ कुछ भी हो सकता है, ‘कारण’ उसके पीछे होता है। कारण समझना चाहिये। कारण समझने के लिए पूर्व परिस्थिति का विचार किया तो इसके मूल में किसान विरोधी कानून हैं, यह पता चलता है। इंडिया’ में उदारीकरण हुआ। (वहाँ भी पूरी तरह से नहीं हुआ है। आज भी अनेक क्षेत्रों में परमीट-कोटा राज जारी है।) ‘भारत’ में अर्थात कृषिक्षेत्र में उदारीकरण बिल्कुल नहीं आने दिया गया। निम्न लिखित कानून इस बात के प्रमाण हैं कि भारत में उदारीकरण बिल्कुल नही आने दिया गया। (१) अधिकतम खेतजमीन धारणा कानून (अऑग्रीकल्चरल लँड सिलिंग ऑक्ट) (२) आवश्यक वस्तु कानून (इसेंशियल कमोडिटीज ऑक्ट), (३) भूमि अधिग्रहण कानून (लँड ऑक्विज्शिशन ऑक्ट) यह तीनों कानून आर्थिक उदारीकरण के तत्वों के विरुद्ध हैं. बह ९० से पहेले जैसे थे वैसेही बाद में बने रहे. आज तक कायम हैं. यह कानूनही किसानों की आत्महत्या की जड हैं.

इस के साथ यह भी जान लेना आवश्यक है की, जिनकी आजिविका मात्र खेती पर निर्भर है ऐसे अल्पभूधारक किसान ही सलीब पर चढ रहे हैं। खेती के इतने छोटे टुकडे हो गये हैं कि किसान उन पर अपने परिवार का बसर नहीं कर सकता। उदारीकरण के कारण आत्महत्या नही हो रही हैं बल्कि उदारीकरण नही होने के कारण किसानों को आत्महत्या करनी पड रही है।

यह लेख श्रृंखला जारी रहेगी। अमर हबीब से habib.amar@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है

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