किसान विरोधी कानून : सिलिंग कानून


LAW & ECONOMICS, हिंदी / Wednesday, December 4th, 2019

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अमर हबीब की किताब पर आधारित किसान विरोधी कानूनों पर लेखों की हमारी श्रृंखला का यह भाग 3 है। पुस्तक यहां से डाउनलोड की जा सकती है (अंग्रेजी और मराठी संस्करण के लिए भी देखें)।

सिलिंग कानून बनाने के पीछे क्‍या हेतु होगा?

उस समय रुस में बोल्शेविक क्रांति हुई थी। लेनीन ने भूमि का राष्ट्रीयीकरण किया था। संसार भर में उसका डंका पिट रहा था। ऐसे समय में संविधान निर्मिती का काम भारत में चल रहा था। संविधान सभा में भूमि के राष्ट्रीयीकरण का प्रस्ताव आया था। उसपर बडी बहस हुई। राजगोपालाचारी आदि नेताओं के विरोध करने के कारण वह प्रस्ताव खारिज किया गया। मूल संविधान में जायदाद का अधिकार मूल अधिकार माना गया था। बात संसद में पहुंची (संविधान सभा के सभी सदस्य संसद के सदस्य थे) जिन लोगों को भूमि के राष्ट्रीयकरण में विशेष रुची थी वे जमीन के पुनःश्च बटवारे के आग्रही थे। जमीनदारी के प्रति लोगों के मन में गुस्सा था। उस भावना का लाभ उठाकर सिलिंग कानून जारी किया गया।

सिलिंग के कारण जो अतिरिक्त जमीन निकलती उस पर सरकार का अधिकार होता। मूल मालीक सरकार। बाद में जिसे जोताई के लिए दी जाती है उसका नाम जोताई करनेवाले के रुप में दर्ज होता है। भूमिहीन जोताई करनेवाला भूमि का मूल मालिक नहीं बनता। वह केवल भूमि की जोताई कर सकता है। उसे अन्य कोई भी मालकीयत के हक नहीं होते हैं। इसका अर्थ इतना ही कि, सिलिंग के कारण निकली अतिरिक्त भूमि सरकार की होती। अतिरिक्तही सही मालकीयत सरकार की होगी। आहिस्ता आहिस्ता सब जमीन का राष्ट्रीयीकरण किया जा सकेगा। इस प्रकार का एक हेतु हो सकता है।

इस कानून के अन्य उद्देश्य भी दिखलाई देते हैं।

अंग्रेजो के समय अपने देश में औद्योगिकीकरण शुरु हुआ। उस समय मजदूरी की अपेक्षा से असंख्य किसान तथा ग्रामीण मजदूर गांव छोडकर शहरों में आते थे। अभी अभी देश स्वतंत्र हुआ था। सरकार का अग्रक्रम औद्योगिकीकरण था। बहुत बडी संख्या में लोग शहरों में आये तो उनको काम देना संभव नहीं, शहरों पर तनाव बढेगा। उसे टालने के लिए किसानों को खेती काम में ही रोके रखने की नीति तय हुई होगी। भूमि के छोटे छोटे ट्रकडों में अधिक से अधिक लोग अटके रहे, इसलिए यह कानून बना होगा। ऐसा भी माना जा सकता है।

अनाज की कमी का वह काल था। कम से कम भूमि में अधिक से अधिक लोग अपना उदर निर्वाह करे। साथही देश के लिए आवश्यक अनाज का निर्माण भी वे करें इसलिए अधिक से अधिक लोगों को कृषिकर्म में लगाने की रणनीति इसके पीछे हो सकती है।

राज्यकर्ताओं के मन में खेती और किसानों के प्रति एक विशिष्ट प्रकार का पूर्वाग्रह था, तुच्छता भाव था। किसान कैसे भी जिये तो हर्ज नहीं लेकिन इंडिया’ का विकास होना चाहिए, यह भावना उनके मन में थी। या खेती का शोषण किये बगैर इंडिया का विकास नहीं होगा, यह सूत्र स्वीकारने के कारण किसानों के पैरों में श्रृंखलाएँ डाली गयी। खेती के प्रति तिरस्कार, जलन जैसे भाव सिलिंग कानून जारी करने के पीछे रहे होंगे, ऐसा लगता है।

सिलिंग कानून को विरोध क्‍यों है?

भूमि के बहुत छोटे छोटे ट्रकडे हो गये हैं। देश के लगभग ८५ प्रतिशत किसान अल्प या अत्यल्प भूमिधारक हैं। भारत में औसतन भूमिधारण एक हेक्टर है।

अर्थात ८५ प्रतिशत किसान ढाई एकड क्षेत्रपर अपनी जीविका यापन करते है। दो या ढाई एकड बिना सिंचाई की भूमिपर किसान परिवार जीवन निर्वाह नहीं कर सकता। ट्कडों में बटी भूमि बडी समस्या हो गई है। यह स्थिती निर्माण होने का मुख्य कारण सिलिंग का कानून है।

यह कानून व्यक्ति स्वातंत्रता में बाधा डालनेवाला तथा संविधान विरोधी है। इस के कारण किसान मुक्त रुप से व्यवसाय नहीं कर सकता।

विश्व की स्पर्धा में उतरने के लिए खेती में पूँजी निवेश आवश्यक है। छोटे छोटे टुकडों के लिए कोई अपनी पूँजी नहीं लगायेगा। भूमिधारण करने की अधिकतम मर्यादा के कारण खेती में कर्तृत्व सिद्ध करने की इच्छा रखनेवाले लोगों का उत्साह टूट जाता है। कल्पक एवं धाडस करनेवाले युवा आकर्षित नही होते। इस प्रकार के अनेक कारणों से सिलिंग कानून तत्काल खारिज होना चाहिए।

सिलिंग कानून का स्वरुप क्‍या है?

सिलिंग का अर्थ होता है, अधिकतम मर्यादा | एका किसान परिवार अधिकतम कितनी खेत जमीन की मालकियत रख सकता है, उस की मर्यादा तय करनेवाला कानून। यह कानून केवल खेती की भूमिपर ही लागू किया गया है। खेत-भूमि की अधिकतम मर्यादा तय करनेवाला यह कानून है। अन्य भूमि पर सिलिंग नहीं है। नागरी भूमिधारण कानून बना था लेकिन बाद में वह खारिज कर दिया गया। खेत जमीन पर सिलींग कानून कायम रखा गया।

खेत-भूमि पर लागू अधिकतम भूमि धारण कानून राज्य सरकार के अधीन है। अलग अलग राज्यों की सिलिंग की मर्यादा अलग अलग है। महाराष्ट्र में बिना सिंचाई की (जिरायत) भूमि ५४ एकड तथा सिंचाई की भूमि १८ एकड की मर्यादा है। अधिक ब्योरा कानून में दिया है।

१९५१ को जमिनदारी उन्मूलन कानून आया तभी कुछ लोग उसके विरोध में न्यायालय में गये थे। बिहार उच्च न्यायालय ने इसके विरोध में निर्णय देकर स्पष्ट रुप से कहा था कि यह कानून संविधान से विसंगत है। यह निर्णय आने के बाद तुरंत संविधान में परिशिष्ट ९ जोडा गया। हालांकी अन्य दो हाय कार्टो का फैसला सरकार के पक्ष में आये थे। बिहार हाय कोर्ट के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में जाया जा सकता है, ऐसी सलाह उस समय के वरिष्ट सांसदोंने दी थी। लेकिन सरकार किसी का कुछ भी सुनने की मनःस्थिती में नही थी। आगे चल कर सिलींग कानून लाया गया और उसे भी परिशिष्ट९ में डाला गया। परिशिष्ट ९ में समाविष्ट कानूनों के विरुद्ध न्यायालय में नही जा सकते। इसलिए यह कानून आज तक बना रहा है।

सिलिंग का कानून पक्षपाती कैसे?

एक एकड की किमत एक करोड मान लिजिये (इतना दाम कहीं नहीं है) तो ५४ एकड के ५४ करोड रुपये होते है। मतलब महाराष्ट्र का किसान ५४ करोड रुपयों से अधिक रुपयों की खेती की जायदाद नहीं रख सकता। (वैसे तो आज ५४ एकड के मालिक खोजकर भी नहीं मिलते) इसके विपरित अंबानी की जायदाद कई लाख करोड बताई जाती है, वे चाहे जितने धन के मालिक हो सकते है। किसान मात्र नहीं। क्‍या यह पक्षपात नहीं है?

कारखानदार कितने कारखाने शुरु करे इसपर कोई बंधन नहीं है। हॉटेल चलानेवाला चाहे जितने हॉटेल खोल सकता है, वकील कितने मुकदमे लढे इस पर कोई बंधन नहीं, डॉक्टर कितने रोगीयों को जाँचे इसपर बंधन नही, इतना ही नहीं एक नाई कितने लोगों की हजामत करे या कितनी दुकाने खोले इसे मर्यादा नहीं। व्यापारी, कारखानदार, व्यावसायिक किसीपर भी बंधन नहीं। केवल अकेले किसानपर ही बंधन क्यों? यह पक्षपात नहीं तो और क्‍या है?

सिलिंग कानून का उद्देश्य जमिनदारी समाप्त करना नहीं था क्‍या?

यह सच है कि भारत में जमीनदारी और साहकारी के कारण अनेक किसानों की भूमि हडप कर ली गई थी। वह भूमि उनके कब्जे से निकालकर मूल किसान मालिक को वापस देना न्यायोचित था। देश स्वतंत्र होने के बाद विशेष न्यायालय स्थापन कर दस वर्ष की अवधी में यह काम किया जा सकता था। भूमि की वापसी’ जैसा कार्यक्रम लिया जा सकता था। जमिनदारी समाप्त करने के बहाने अन्य किसानों की जायदाद पर मर्यादा लादना जरुरी नहीं था।

जमीनदारी खत्म करने के अनेक मार्ग होने के बावजूद सरकारने सिलिंग कानून जारी किया। इसका मतलब यह कि सरकार को केवल जमीनदारी खत्म करने के लिए यह कानून जारी नहीं करना था। अफसोस की बात यह है कि, सरकारने जमीनदारी खत्म करने के लिए ‘हम सिलिंग का कानून जारी कर रहे हैं’, इस बात के इतने ढोल पीटे कि आज सत्तर वर्ष के बाद भी अनेक बुद्धिजीवि सिलिंग कानून को जमीनदारी खत्म करने का उपाय मानते हैं।

जमीनदारी खत्म करने के लिए सिलिंग कानून की क्या आवश्यकता थी? जो जमीनदार थे उनकी अतिरिक्त जमीन की मालकीयत खत्म कर सकते थे। दूसरों पर बंधन लादने का क्या मतलब? यह तो वह ही बात हुई के शिकार करने के लिये पूरे जंगल को ही जला देना। अमेरिका में हमारे देश से अधिक भयंकर जमीनदारी थी। उन्होंने सिलिंग के कानून को लागू नही किया और जमीनदारी को खत्म कर दिया। जमीनदारी खत्म करने के लिए अन्य लोगों के मूलभूत अधिकार खत्म करने की आवश्यकता नहीं थी।

यहाँ यह समझना आवश्यक है कि बहुत अधिक जमीन की मालकीयत का अर्थ जमीनदारी नहीं होता। जमीनदारी तब शुरु होती है जब उस जमीन में काम करनेवाले लोग बेगार बनाये जाते हैं। जहाँ बेगार नहीं हैं, ऐसे समाज में जमीनदारी हो ही नहीं सकती। ‘युनो’ की निर्मिती के बाद मानवी अधिकारों को विश्वभर में स्थान मिला। भारत के संविधान में बेगार का तीव्र विरोध किया गया है। जहाँ बेगार बेकायदा मानी जाती है वहाँ मानवी मूल्यों को प्राधान्य दिया जाता है। वहाँ जमीनदारी चल ही नहीं सकती।

जब तक पूँजी निर्मिती का खेती यही एकमात्र साधन था तब तक यह भय था। अब समय के साथ परिस्थिती बदली है। पूँजी निर्माण करने के अन्य स्त्रोत निर्माण हुए है। ऐसे समाज में फिरसे जमीनदारी आ जायगी यह भय बेमतलब का है।

जमीनदारी खत्म करने के लिए सिलिंग की आवश्यकता ही नहीं थी। शायद वह हेतु भी नहीं था।

यह लेख श्रृंखला जारी रहेगी। अमर हबीब से habib.amar@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है

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